‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गलत सरकारी फैसलों पर अदालत जिम्मेदारी तय करे

उत्तरप्रदेश में करीब 70 हजार शिक्षकों की भर्ती का मामला चार बरस से अदालतों में चल रहा है, और अभी भी किसी अंत के करीब नहीं है। हाईकोर्ट ने इनकी चयन सूची को खारिज करते हुए तीन महीने में नई चयन सूची बनाने का हुक्म दिया था, और इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। अदालत हाईकोर्ट के फैसले को अधिक बारीकी से पढऩा चाहता है, और इस बीच उसने सरकार और शिक्षकों के अलग-अलग तबकों को नोटिस भी दिया है। कुछ इसी तरह के मामले छत्तीसगढ़ में अलग-अलग कई तरह के स्कूल और कॉलेज शिक्षकों के चयन और उनके प्रमोशन को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक चल रहे हैं, और सरकारों का कार्यकाल खत्म हो जाता है लेकिन अदालतों में फैसले नहीं हो पाते। छत्तीसगढ़ में बेरोजगारों को पिछले दो दशक में कई तरह के सदमे झेलने पड़े हैं। 2005 के पीएससी घोटाले के शिकार लोगों को अब तक सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ नहीं मिल पाया है। जबकि गलत चुन लिए गए लोग राज्य सेवा से आगे बढ़ते हुए आईएएस बन चुके हैं, और उनकी जगह जिन लोगों को नौकरी मिलनी चाहिए थी, वे अब तक बेरोजगार घूम रहे हैं। बरसों से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पड़ा हुआ है, और इसका कोई निपटारा नहीं हो रहा है। स्कूल और कॉलेज शिक्षकों के हजारों लोगों के मामले बरसों तक घिसटते हुए अदालतों से तय होते हैं, तो भी सरकार को उस पर अमल की कोई जल्दी नहीं रहती।

किसी भी राज्य की सरकार, उसके पास अपने नियमित वकीलों की एक फौज तो रहती ही है, देश के सबसे बड़े विशेषज्ञ वकीलों की मोटी फीस देकर भी सरकारें उनसे राय लेती हैं। ऐसे में इतने गलत फैसले होते कैसे हैं कि हजारों बेरोजगारों, या सरकारी कर्मचारियों की जिंदगी को प्रभावित करने में कानूनी चूक हो जाए? क्या बड़े-बड़े आईएएस अफसर, और सरकार के बड़े-बड़े वकील मिलकर भी कानूनी गलतियों को टाल नहीं सकते? कौन से ऐसे दबाव रहते हैं कि सरकार इतनी गलतियां, या गलत काम करती है? जब कभी हम अदालतों पर बोझ की बात करते हैं, तो यह बात भी उठती है कि बड़ी अदालतों का बहुत सारा वक्त तो गलत सरकारी फैसलों के खिलाफ लडऩे में ही चले जाता है। अदालतों में सरकारों का अडिय़ल रूख देखें तो ऐसा लगता है कि जज जज नहीं हैं, वे सरकारी वकील के खिलाफ बहस करने वाले वकील हैं। अभी उत्तराखंड के एक मामले में मुख्यमंत्री की तरफ से उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के जज से कहा कि किसी भी तरह का तबादला करना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, फिर चाहे राज्य के मंत्री और अफसर इसके खिलाफ ही फाइलों पर क्यों न लिख चुके हों। सुप्रीम कोर्ट जज को वकील को यह समझाना पड़ा कि राजशाही के दिन लद गए हैं, और मुख्यमंत्री अब बादशाह नहीं होते हैं कि उनकी मर्जी हुक्म हो जाए, अब कानून का राज चल रहा है। यह नौबत आम रहती है। आज अनगिनत राज्य सरकारों, विधानसभा अध्यक्षों, राज्यपालों का रूख संविधान और कानून के खिलाफ जाकर मनमानी करने का रहता है। हर कुछ हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट के जज इन तबकों में से किसी न किसी के मुखिया की आलोचना करते हैं, और यह साबित होता है कि उन्होंने संविधान के खिलाफ काम किया है। जबकि इनमें से हर किसी को कानूनी सलाहकार हासिल रहते हैं।

लोकतंत्र में जहां गौरवशाली परंपराओं के आधार पर अलग-अलग संवैधानिक संस्थाओं को जनहित और जनकल्याण में फैसले लेना चाहिए, अब लगातार यह देखने मिलता है कि राज्य सरकार, विधानसभा, और राजभवन के मुखिया अपने पहले की कमजोर और खराब मिसालों को गिनाते हुए उनसे भी अधिक कमजोर और खराब फैसले लेने पर आमादा रहते हैं। छत्तीसगढ़ की पिछली भूपेश सरकार ने राज्य की कुछ सबसे भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए राज्य की ही जांच एजेंसी को तबाह कर दिया, और जांच एजेंसी ने मुजरिमों के वकील की तरह काम किया। इसके अलावा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ऐसे लोगों के रिटायर हो जाने के बाद तमाम नियमों के खिलाफ जाकर उन्हें दुबारा नौकरी दी, और राज्य के सबसे जरूरी महकमों का बाप बनाकर उन्हें बिठा दिया था। भूपेश सरकार के खिलाफ आज सुप्रीम कोर्ट से लेकर जांच एजेंसियों की विशेष अदालतों तक जितने मामले चल रहे हैं, वे जाहिर तौर पर सरकार ने जानते-समझते हुए गलत फैसले लिए थे, उनसे राज्य का हजारों करोड़ का नुकसान हुआ, सरकार ने एक मुजरिम गिरोह की तरह काम किया, और अब उसका एक-एक फैसला अलग-अलग अदालतों में नंगा हो रहा है।

सरकारों को यह समझना चाहिए कि वे सत्ता के बाहुबल से कई बहुत ही गैरकानूनी फैसले ले सकती हैं, और जब तक अदालतों से उनके खिलाफ आखिरी फैसला नहीं हो जाता, तब तक वे अपने फैसले को सही करार देते हुए राजनीतिक मोर्चे पर अड़े भी रह सकती हैं, लेकिन बरसों बाद जाकर सही, ऐसे फैसले गलत साबित होते ही हैं। इसमें बरसों तक जनता बेइंसाफी झेलती है, देश की सबसे व्यस्त और सबसे बड़ी अदालतें इन निहायत गैरजरूरी मामलों का बोझ झेलती हैं, और लोकतंत्र में सबसे खराब मिसालें स्थापित होती हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। हमारा तो यह साफ मानना है कि जो अफसर ऐसे गलत फैसलों की फाइलों पर दस्तखत करते हैं, उनके खिलाफ भी अदालतों को खुलकर फैसले देने चाहिए, ताकि बाकी अफसरों को भी पता लगे कि नाजायज राजनीतिक फैसलों को फाइलों पर सही ठहराने की कोशिश कैसी सजा दिलाती है। एक-एक गलत सरकारी फैसले से जब लाखों बेरोजगारों का दिल टूटता है, हजारों बेरोजगारों का हक छिनता है, तो फिर उसके खिलाफ अदालती फैसले में जिम्मेदार अफसरों पर भी टिप्पणी होनी चाहिए। ऐसी टिप्पणी इन अफसरों के रिकॉर्ड में भी दर्ज होनी चाहिए ताकि आगे उनके भविष्य को तय करते हुए इसे ध्यान में रखा जाए। केन्द्र सरकार को भी अपने भेजे हुए अखिल भारतीय सेवा के अफसरों पर नजर रखनी चाहिए कि राज्यों में वे किस तरह काम कर रहे हैं, और कैसे बर्ताव के हकदार हैं। आज हालत यह रहती है कि तीस साल की नौकरी करने के बाद ऐसे लोगों के बारे में केन्द्र कोई फैसला लेती है, और तब तक वे लोकतंत्र को बहुत दूर तक बर्बाद कर चुके रहते हैं। जितने भी व्यापक महत्व के सरकारी फैसले आखिरी अदालत से खारिज होते हैं, उन्हें लेकर अदालत, या सरकार की तरफ से यह भी खुलासा होना चाहिए कि किन मंत्रियों, और किन अफसरों ने ऐसा फैसला लेने में क्या भूमिका निभाई थी।